Saturday, December 31, 2016

ह्रदय हुआ आबाद न अब तक

ह्रदय हुआ आबाद न अब तक
     
        कितने सावन आए गुज़रे
        कितने मंज़र मन में उतरे
        वादे कितने किए सभी ने
        फिर वो वादे टूटे बिखरे
चाह मुझे थी तारों की पर
मिला मुझे आकाश न अब तक
ह्रदय हुआ............................


        कितने लोग सफर में आये
        कितने मिलकर हुए पराये
       अकस्मात ही, पूर्व समय से        
       कुछ जो फूल खिले, मुरझाए
चाह मुझे उन्मत्त रहूँ पर
मिला मुझे उन्माद न अब तक
ह्रदय हुआ............................


         कितनी खुशियां फिसली छू कर
         सपने ठहरे बस कुछ क्षण भर
         जीवन मेरा चलता जैसे
         निर्जन राही दुर्गम पथ पर
चाह मुझे थी साथी की पर
मिला किसी का हाथ न अब तक
ह्रदय हुआ............................

Tuesday, December 27, 2016

परछाई

कल चाँद आया था क़ैफ़ियत* पूछने
तुम्हारे जाने का अंदाज़ा
हो गया था उसे
मेरी मायूसी देखकर
शायद
और
जवाब देने को मैंने
जैसे ही उठाई
नज़रें अपनी
लौट गया वो
जल कर मानो
बिना सुने ही

मेरी आँखों में
तुम्हारा चेहरा दीखता है क्या ?

.....................................................

क़ैफ़ियत* = हाल



Thursday, December 15, 2016

ये निशा नहीं जाने वाली

ये निशा नहीं जाने वाली
               
             सूरज आता अब भी नभ में
             पर तिमिर नहीं जाता है अब
             कितनी रातें हैं गुज़र गई
             क्यूँ भोर नहीं होता है अब
             मुझको लगता सूरज किरणें
             अब यहाँ नहीं आने वाली
             ये निशा....................


             आशा बंधती है एक पल को
             फिर तितर बितर सब हो जाता
             सपना कोई जो देख लिया
             निश्चय ही खंडित हो जाता
             मुझको लगता इस ओर कभी
             अब खुशी नहीं आने वाली
             ये निशा....................


             तुमको सब था मालूम मगर
             फिर भी मुख तुमने फेर लिया
             मेरे हिस्से जो था जीवन
             सब धीरे-धीरे छीन लिया
             मुझको लगता है अब कोयल
             मधु गीत नहीं गाने वाली
             ये निशा....................






Friday, December 9, 2016

ग़ज़ल

सब कुछ लगता मुब्हम* सा है
तेरे जाने का ग़म सा है

जो मुमकिन हो तो रह जाओ
जाना तेरा मातम सा है

बस दुश्वारी दिखती इसमें
पथ तेरे बिन दुर्गम* सा है

जाने से तेरे इस घर का
हर एक कोना बरहम* सा है

हो फुरसत तो मुड़कर देखो
दश्तो आलम* पुरनम* सा है

ये जीवन तेरे बिन गोया
कुछ आधा है कुछ कम सा है


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१. मुब्हम           - अस्पष्ट
२. दुर्गम            -  दुस्तर, विकट
३. बरहम          -  अस्त-व्यस्त
४. दश्तो आलम - दुनिया, संसार
५. पुरनम          -  गीला, भीगा


Tuesday, July 5, 2016

कल ही घर बदलना है

घर बदल रहा हूँ
तमाम तैयारियां हो चुकी हैं
सामान बंध गया है
बस तुम्हारी यादें
बिखरी पड़ी हैं चारसू
इस कमरे , उस कमरे
सोफे, पलंग
तकिया, बिस्तर
और
जाने कहाँ-२
उसे कैसे पैक करूँ
पर छोड़ भी तो नहीं सकता
अब तुम भी तो नहीं
कि
नए घर में
नई यादें बना लूँ
इसी सोच में सारी
रात गुज़र गई
कमबख़्त
पर कोई हल नहीं निकला
कल ही घर बदलना है

Tuesday, March 15, 2016

ये कैसा समय है

ये कैसा समय है, ये कैसा समां है
न कुछ दीखता है, न कुछ सूझता है

न दिन सा ही दिन है
न रातें ही शब सी
न पुलकित हुआ मन
है बारिश अजब सी
ये मन दूसरा अब, जहां ढूंढता है
न कुछ....................................


यूं लगता है जैसे
बेगाना शहर हो
तिमिर में ही जाती
हर एक रहगुज़र हो
ये मन अब हवा पर, कहाँ झूमता है
न कुछ....................................


सभी ओर नफरत
ही नफरत कि बातें
नहीं कोई करता
मुहब्बत कि बातें
ये मन प्रेम का पर, मकां ढूंढता है
न कुछ....................................