Thursday, December 13, 2018

ग़ज़ल


यूँहि मेरे साथ वो चलता चला गया
नज़्म में हरेक उतरता चला गया

था कोई तिलिस्म* या उसकी थी रहबरी*
तीरगी* में नूर जो भरता चला गया

उसके होंठ उसकी नज़र और वो छुअन
नश्शा रफ़्ता-रफ़्ता ये बढ़ता चला गया

कैसा था वो राहगुज़र* कैसा था समा
आँखों में वो चाँद उतरता चला गया

बँध सका हुदूद* में ये आज तक कहाँ
इश्क़ का ख़ुमार था चढ़ता चला गया

कैसा दौर है ये हुकूमत का देश में
नाम हर नगर का बदलता चला गया


....................................
तिलिस्म* = जादू
रहबरी* = राह दिखाना, Comanionship, Guidance
तीरगी* = अंधेरा
राहगुज़र* = रास्ता
हुदूद* = सीमा

Monday, February 26, 2018

हाँ ऐसा है लगता मुझको

हाँ ऐसा है लगता मुझको


            तुम कल्पित हो, सत्य नहीं तुम 
            एक रहस्य सा, व्यक्त नहीं तुम 
            अंतर तेरा, एक अथाह है 
            नहीं समाहित, उसमें क्या है 
ठीक-ठाक तो समझ न पाया 
पर कुछ ऐसा लगता मुझको 
हाँ ऐसा है...........................


             तुम पूरित हो, पर अशेष तुम
             सहज सरल हो, पर विशेष तुम 
             अनगिन पहलू, समाविष्ट हैं
             सब हैं अद्भुत, सब विशिष्ट हैं 
दुनिया तुमको समझ न पाई
पर है ऐसा लगता मुझको
हाँ ऐसा है......................


               सतत प्रकाशित, एक चराग तुम
               आदर्शीकृत, एक पड़ाव तुम
               नहीं है संभव, वर्णन तेरा
               किसी चित्र में, चित्रण तेरा 
रख लूँ तुझको मैं कविता में
पर मेरा मन कहता मुझको
हाँ ऐसा है.........................