Tuesday, June 28, 2011

ग़ज़ल

यूं तो हर इक लब पे हँसी की लिबास है,
वरना ये कायनात कितनी गमशानस* है

सजदे में सर झुके ये मरासिम* की बात है,
इंसान को कहाँ वगरना इम्तिआज़* है

लोग कहते हैं कि उल्फत जीस्त* है लेकिन,
मिलता यहाँ पे ज्यादा गम-ए-इफतिराक* है

एहसास उनको हो भले ही जी रहे हैं पर,
इंसान अब इक चीखता,चिल्लाता लाश है 

इन्सान ही कहलाता हर इक आदमी मगर,
इंसानियत तो गुजरे ज़माने कि बात है

राह हम पकड़े भले भलाई की मगर,
अब बुराई पर कहाँ उठता सवाल है 
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गमशानस= गम पहचानने वाला
मरासिम= रस्म का बहुवचन 
इम्तिआज़=तमीज़ करना
जीस्त= जीवन 
गम-ए-इफतिराक= जुदाई का गम 

Monday, June 6, 2011

ग़ुरबत*

चाँद और तारे चमकते हैं गगन में 
दीप्ति* रथ पर सूर्य भी चलता मगन में 
पर न इस तक नूर का कतरा पहुँचता 
देह  है झुलसा हुआ जबकि अगन में 
मध्य में अदृश्य कुछ दीवार सा है 
सर पे इसके क़र्ज़ का एक भार सा है 

त्यौहार की सुन्दर घड़ी आई हुई है 
और चारों ओर हरियाली हुई है 
वंचित रहा है इस से भी पर वह अभी तक 
नियति* उसकी आज शर्मायी हुई है 
यातनाओं के भंवर के मध्य उसका 
अब उपेक्षित बना एक संसार सा है 

कब तक मगर वह इस तरह जीता रहेगा 
जहर जो जग से मिला पीता रहेगा 
उसकी सजा की भी कोई सीमा तो होगी 
या यूँ ही हालात से लड़ता रहेगा 
श्रम से मगर सम्मान पा लेगा ही एक दिन 
पलता ह्रदय में एक यह विश्वास सा है
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ग़ुरबत - गरीबी 
दीप्ति - प्रकाश
नियति - भाग्य