आज मनुज की देख दुर्दशा
अंतर्मन सहसा बोल पड़ा है
क्यूँ मानव, मानव कहलाता
जो उसके संग विवेक न होता
क्यूँ सर्वोत्तम माना जाता
जो संग नीति उपदेश न होता
किन्तु इसी अवलंबन* को
वह आज हटाना चाह रहा है
क्यूँ इतने रिश्ते बन जाते
जो संग प्रेम संगीत न होता
क्यूँ मानव खुद पर इठलाते
जो ज्ञान दीप संदीप्त* न होता
लेकिन इस प्रकृति-प्रबंधन* को
वह आज मिटाना चाह रहा है
क्यूँ प्रत्येक निशा उत्तर*
दिनकर आलोक लिए आता
क्यूँ सुख-दुःख का सम्मिश्रण
जीवन संतुलित किये जाता
पर आज उसी दैविक रहस्य को
वह झुठलाना चाह रहा है
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अवलंबन -- आधार
संदीप्त -- प्रज्ज्वलित
प्रबंधन -- व्यवस्था
निशा उत्तर -- रात के बाद
अंतर्मन सहसा बोल पड़ा है
मन में जमे हुए भय पर
एक बार पुनः हिलकोर पड़ा हैक्यूँ मानव, मानव कहलाता
जो उसके संग विवेक न होता
क्यूँ सर्वोत्तम माना जाता
जो संग नीति उपदेश न होता
किन्तु इसी अवलंबन* को
वह आज हटाना चाह रहा है
क्यूँ इतने रिश्ते बन जाते
जो संग प्रेम संगीत न होता
क्यूँ मानव खुद पर इठलाते
जो ज्ञान दीप संदीप्त* न होता
लेकिन इस प्रकृति-प्रबंधन* को
वह आज मिटाना चाह रहा है
क्यूँ प्रत्येक निशा उत्तर*
दिनकर आलोक लिए आता
क्यूँ सुख-दुःख का सम्मिश्रण
जीवन संतुलित किये जाता
पर आज उसी दैविक रहस्य को
वह झुठलाना चाह रहा है
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अवलंबन -- आधार
संदीप्त -- प्रज्ज्वलित
प्रबंधन -- व्यवस्था
निशा उत्तर -- रात के बाद