कब तक दिया जलाए रक्खूं
रात्रि पहर न बीत रही है
और निराशा जीत रही है
अपने अंदर आशा को मैं
कब तक यूंहि जगाए रक्खूं
कब तक.……………….
हर बार ये मन बस छला गया है
आग, नशेमन जला गया है
अपने अंदर के धीरज को
कब तक यूंहि बनाए रक्खूं
कब तक.……………….
चंदा-तारे कब के डूबे
अब परास्त हैं सब मनसूबे
कोरी कल्पित दुनिया को मैं
कब तक यूंहि सजाए रक्खूं
कब तक.……………….
रात्रि पहर न बीत रही है
और निराशा जीत रही है
अपने अंदर आशा को मैं
कब तक यूंहि जगाए रक्खूं
कब तक.……………….
हर बार ये मन बस छला गया है
आग, नशेमन जला गया है
अपने अंदर के धीरज को
कब तक यूंहि बनाए रक्खूं
कब तक.……………….
चंदा-तारे कब के डूबे
अब परास्त हैं सब मनसूबे
कोरी कल्पित दुनिया को मैं
कब तक यूंहि सजाए रक्खूं
कब तक.……………….