कब तक दिया जलाए रक्खूँ
डीमो भी कुछ समझ न आई
आँखें मूंदे कब तक लेकिन
मन में आस लगाए रक्खूँ
कब तक........................
रोज़गार का वही हाल है
जीडीपी लेटा निढाल है
अच्छे दिन के सपने को मैं
कब तक यूँही जगाए रक्खूँ
कब तक........................
दंगे अब तो आम बात हैं
जबरन होते बिल भी पास हैं
अपने मन को कब तक लेकिन
*मृगजल में उलझाए रक्खूँ
कब तक........................
सभी *सूचकों में हम फिसले
कोरोना में आगे निकले
कोरी कल्पित दुनिया को मैं
कब तक यूँही सजाए रक्खूँ
कब तक........................
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*मृगजल = मृगतृष्णा, भ्रम
*सूचक = Index