Friday, November 18, 2011

पर क्या करें कि

जी करता है ज़रा फुरसत के पल जिऊँ,
पर क्या करें कि दुनिया में काम बहुत है

मजलिस* में जाने कि है आरज़ू उभरी,
पर क्या करें कि सर पर इल्ज़ाम बहुत है

सोचता हूँ चाल सियासी भी सीख लूँ,
पर क्या करें कि जुबां बेलगाम बहुत है

हसरत हुई मुझको भी दिल लगाने की,
पर जफ़ा* का इसमें इंतज़ाम बहुत है

बरकत है इस शहर में लोगों से है सुना,
पर क्या कहें चारों-तरफ कोहराम बहुत है


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मजलिस - सभा,महफ़िल  
जफ़ा - अत्याचार 



Friday, October 7, 2011

उलझन के दिन बीत रहे हैं

उलझन के दिन बीत रहे हैं
दिन उलझन में बीत रहे हैं

                  एक पल में मैं आशावादी
                  अगले पलक निराशावादी ,
                  एक पल जो मानूं ऊंचाई
                  अगले क्षण वो गहरी खाई
कोरी आशा , मृगतृष्णा के
निष्ठुर दिन वे धूर्त रहे हैं
दिन उलझन में........
                 
                    एक पल को मैं हार से डरता
                    अगले क्षण प्रतिकार हूँ करता ,
                    एक पल कोई लगता प्यारा
                    अगले पल न रहे हमारा
कभी जटिलता,कभी कठिनता
दिन ये बड़े अविनीत* रहे हैं
दिन उलझन में......

                     एक पल लक्ष्य है अपना लगता
                     अगले क्षण सब सपना लगता ,
                     एक पल को लगता है सवेरा
                     अगले क्षण बस घोर अँधेरा
साक्षी इस दुविधा के मेरे
कई छंद ओ गीत रहे हैं
दिन उलझन में........


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अविनीत - निष्ठुर,निर्दयी


                 

Friday, September 30, 2011

नाला-ए-दिल*


जिक्र-ए-खयालात का मौका तो दिया होता
यूँ भी क्या था जाना इत्तला* तो किया होता 

 हम भी समंदर की वो गहराई माप लेते 
आँखों में अपने खोने का मौका जो दिया होता 

हम जीस्त* काट लेते उस ख़याल के सहारे 
मिलने का कभी तुमने वादा तो किया होता 

बदनाम हम न होते,कुचों* में नुक्कड़ों पर 
गर बज़्म* में तुमने हमें रुसवा* न किया होता 

दीवान दर्द-ओ-ग़म का मुक़म्मल* न होने पाता
गर कर गिरफ़्त इश्क में धोखा न दिया होता  

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नाला-ए-दिल - ह्रदय से निकलने वाला आर्तनाद  
इत्तला - सूचना
जीस्त - ज़िन्दगी 
कुचों -  गलिओं 
बज़्म - महफ़िल 
रुसवा - अपमानित 
मुक़म्मल - पूरा 

Tuesday, September 27, 2011

गुज़रा ज़माना

 वो दिन थे जब रोज़ होती थी मुलाकातें
अब नज़रों का मिलना भी इत्तफ़ाक लगता है 

इक वक़्त था जब शफ़क* से मोहब्बत थी मुझको
अब सूरज का उगना भी मज़ाक लगता है  

किसी ज़माने में खुशियों की चाहत थी मुझको
अब मसर्रत* से खूबसूरत अज़ाब* लगता है 

कभी तसव्वुर* से भी जिसके सुकून मिलता था 
अब ख्याल-ए-वस्ल* भी उदास लगता है 

जंग-ए-मोहब्बत में गर नाकाम हो गए
तब ज़िन्दगी बस दर्द का हिसाब लगता है 

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शफ़क - सवेरे या शाम की लालिमा जी क्षितिज पे होती है 
मसर्रत - ख़ुशी,आनंद  
अज़ाब - दुःख,कष्ट  
तसव्वुर -  ख्याल 
ख्याल-ए-वस्ल - मिलने का विचार 



   

Saturday, September 10, 2011

फिर क्यूँ गाऊं मन बहलाऊं

न मैं आया न तुम आये, ये वर्तमान फिर बीत गया 
कुछ टूट गए कुछ तोड़े गए, ये पुष्प्वृक्ष फिर रीत* गया 

न मैंने कहा न तुमने सुना, ये नीरवता* फिर जीत गया
न स्वर ही रहा न राग बचा, फिर व्यर्थ ही ये उद्गीत* गया

जिसने भी दिया बस छल ही दिया, न मुख कोई निर्लिप्त* गया
मैं भी पा लेता प्रेम मगर, ये भी वांछन* अतृप्त गया 

जो स्वप्न बुने वो टूट गए, न शौक कोई परितृप्त* गया
जिसको चाहा वो छूट गए, न दीप कोई संदीप्त* गया

न आस कोई परिहास* कोई, अब निज भरोस भी टूट गया
फिर क्यूँ गाऊं मन बहलाऊं, जब साज ह्रदय का छूट गया

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रीत - खाली होना 
नीरवता - निशब्दता 
उद्गीत - उचें स्वर में गया हुआ गाना
निर्लिप्त - बिना लेप चढ़ाया हुआ  
वांछन - इच्छा 
परितृप्त - अच्छी तरह संतुष्ट 
संदीप्त - जला हुआ 
परिहास - हास्य,विनोद  

Tuesday, June 28, 2011

ग़ज़ल

यूं तो हर इक लब पे हँसी की लिबास है,
वरना ये कायनात कितनी गमशानस* है

सजदे में सर झुके ये मरासिम* की बात है,
इंसान को कहाँ वगरना इम्तिआज़* है

लोग कहते हैं कि उल्फत जीस्त* है लेकिन,
मिलता यहाँ पे ज्यादा गम-ए-इफतिराक* है

एहसास उनको हो भले ही जी रहे हैं पर,
इंसान अब इक चीखता,चिल्लाता लाश है 

इन्सान ही कहलाता हर इक आदमी मगर,
इंसानियत तो गुजरे ज़माने कि बात है

राह हम पकड़े भले भलाई की मगर,
अब बुराई पर कहाँ उठता सवाल है 
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गमशानस= गम पहचानने वाला
मरासिम= रस्म का बहुवचन 
इम्तिआज़=तमीज़ करना
जीस्त= जीवन 
गम-ए-इफतिराक= जुदाई का गम 

Monday, June 6, 2011

ग़ुरबत*

चाँद और तारे चमकते हैं गगन में 
दीप्ति* रथ पर सूर्य भी चलता मगन में 
पर न इस तक नूर का कतरा पहुँचता 
देह  है झुलसा हुआ जबकि अगन में 
मध्य में अदृश्य कुछ दीवार सा है 
सर पे इसके क़र्ज़ का एक भार सा है 

त्यौहार की सुन्दर घड़ी आई हुई है 
और चारों ओर हरियाली हुई है 
वंचित रहा है इस से भी पर वह अभी तक 
नियति* उसकी आज शर्मायी हुई है 
यातनाओं के भंवर के मध्य उसका 
अब उपेक्षित बना एक संसार सा है 

कब तक मगर वह इस तरह जीता रहेगा 
जहर जो जग से मिला पीता रहेगा 
उसकी सजा की भी कोई सीमा तो होगी 
या यूँ ही हालात से लड़ता रहेगा 
श्रम से मगर सम्मान पा लेगा ही एक दिन 
पलता ह्रदय में एक यह विश्वास सा है
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ग़ुरबत - गरीबी 
दीप्ति - प्रकाश
नियति - भाग्य