Thursday, October 29, 2020

कब तक दिया जलाए रक्खूँ

कब तक दिया जलाए रक्खूँ


             रोज़-रोज़ बढ़ती महँगाई
             डीमो भी कुछ समझ न आई 
             आँखें मूंदे कब तक लेकिन 
             मन में आस लगाए रक्खूँ
             कब तक........................


रोज़गार का वही हाल है 
जीडीपी लेटा निढाल है 
अच्छे दिन के सपने को मैं 
कब तक यूँही जगाए रक्खूँ
कब तक........................ 


             दंगे अब तो आम बात हैं 
             जबरन होते बिल भी पास हैं 
             अपने मन को कब तक लेकिन 
             *मृगजल में उलझाए रक्खूँ
             कब तक........................ 


सभी *सूचकों में हम फिसले 
कोरोना में आगे निकले 
कोरी कल्पित दुनिया को मैं 
कब तक यूँही सजाए रक्खूँ
कब तक........................ 

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*मृगजल = मृगतृष्णा, भ्रम 
*सूचक  = Index

Thursday, September 3, 2020

सपनों से सुन्दर अपना दर्पण

सोचा था सपनों से सुन्दर, अपना दर्पण होगा


                 सूरज के ऊपर किसने ये, काली चादर डाली
                 अभिलाषा थी देखूँगा मैं, प्रात-काल की लाली
                 सूर्य-किरण से आलोकित फिर, कब जन-जीवन होगा
                 सोचा था सपनों से सुन्दर.....................


अम्बर के सज्जा आभूषण, किसने हाय उतारे
सूने नभ को कब तक देखूँ, बिन चंदा बिन तारे
*चंद्र-तारिकाओं से जगमग, कब गगनांगन होगा
सोचा था सपनों से सुन्दर.....................


                 उपवन के अंतस में जाने, किसने आग लगाई
                 मुरझाई वल्लरियाँ ऐसी, कभी कुसुम ना आई
                 पुष्प-सुमन से सज्जित शोभित, फिर कब उपवन होगा
                 सोचा था सपनों से सुन्दर.....................


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चंद्र-तारिकाओं = चाँद-तारे 

Tuesday, September 1, 2020

ये क्या हो रहा है

ये क्या हो रहा है
ये क्यूँ हो रहा है
समय बिंदु पर एक
दिवस से खड़ा है

                          नहीं ऐसा देखा
                          था पहले कभी भी,
                          न फ़ितरत ही इसकी
                          यूँ लगती थी ऐसी,
                          कि टिक कर रहेगा
                          ये एक अंक पर ही,
                          ये *बेमिस्ल मंज़र
                          मगर दिख रहा है
                          समय बिंदु पर एक.......

ये ठहरा हुआ है
या भ्रम हो रहा है,
अगर यह थमा है
तो क्यूँकर थमा है,
ये फिर कब चलेगा
या यूँही रहेगा,
ये किसको ख़बर है
ये किसको पता है
समय बिंदु पर एक.......

                         या मैं रुक गया हूँ
                         सफ़र में यकायक,
                         तो यूँ लग रहा है
                         समय रुक गया है,
                         नहीं जानता हूँ
                         नहीं जान सकता
                         ये जैसी है उलझन
                         ये जो मसअला है
                         समय बिंदु पर एक.......

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*बेमिस्ल =अद्वितीय, अनोखा , जो पहले नहीं हुआ हो
                       


Sunday, April 5, 2020

जीवन

चाहे जैसा भी हो जीवन,
धीरे-धीरे, रहते-रहते
एक आदत सी पड़ जाती है ।

हाँ, आदत तो पड़ जाती है
पर आदत पड़ने के क्रम में,
समझौते करते रहते हैं
पीड़ा भी सहते रहते हैं
क्रमशः एक दिन वो आता है
जब हम ख़ुद को खो देते हैं

हम जब ख़ुद को खो देते हैं
तब जाकर पड़ती है आदत
वैसे जीवन में ढलने की
वैसी राहों पे चलने की
जिसपे हमने पहले ख़ुद को
ना देखा है, ना पाया है

ना देखा है, ना पाया है
पर ये कैसा निर्मम जीवन
जिसने हमको सब दिखलाया
जिसमें हमने सोचा क्या था
और जिसमें हमने क्या पाया
हाँ, पर आदत पड़ जाती है
चाहे जैसा......................

Friday, March 27, 2020

कोट



एक कोट जो अब
तक़रीबन एक हफ़्ते से
टंगा हुआ है खूँटी पर
सिलवटों पर अब जिसकी
धूल की कई परतें जम गई हैं

फ़ुर्सत के पहले दो-तीन दिनों में उसने आराम किया
कोहनी से अपनी बाज़ूओं को
मोड़कर छाती तक ले गया
अपने फेफड़ों में राहत की लम्बी सांसें भरी
और देर तक सोता रहा

पर यूँ है कि उसे,
रोज़ निकलने कि इक आदत सी रही है
हाँ, बहुत इस्तेमाल होने पर
कभी-कभी शिक़ायत किया करता था
दबी आवाज़ में ,
पर फ़ितरतन इतना आराम-पसंद कभी न रहा

कल मैंने देखा कि उसके बाज़ू फड़फड़ा रहे थे
धूप को, आकाश को,
अब्र को, माहताब को,
और *मंज़र-ए-आम देखने को
शायद

हाँ, उसे रोज़ सैकड़ों लोगों से मिलने की आदत सी रही है
और आदत रही है उसे एक शरीर पहनने की 
अब उसे ये ख़ालीपन खाए जा रहा है

टंगा है वो *मुंजमिद
उस सुब्ह की आस में
जब उसपे जमे धूल साफ़ किये जाएंगे
और दिया जाएगा उसे वापिस वो शरीर
जिसके बाज़ू और छाती
ठीक उसके नाप के बने हैं
और जिसे पहनकर वो निकलेगा बाहर
*तलाश-ए-रिज़्क़ में
पहले कि तरह

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*मंज़र-ए-आम = खुला दृश्य
*मुंजमिद = जमा हुआ
*तलाश-ए-रिज़्क़ = रोज़गार की तालाश