Monday, August 14, 2017

ये जज़्बों का कैसा

ये जज़्बों का कैसा, है सूखा पड़ा अब 
एक अरसा है गुज़रा, नहीं लिक्खी मैंने 
ग़ज़ल-नज़्म कोई

जो होती थी पहले, अजब कुलबुलाहट
मेरे मन के अंदर, 
जो दीखता था कोई, मुझे रोता बच्चा,
या लगती थी अच्छी, हँसी जब किसी की  
तो लगता था जैसे,
कि लिख दूँ मैं सब कुछ ही नज़्मों मैं अपने 
मगर जाने क्यों अब, नहीं होता ये सब 
नहीं फ़र्क़ पड़ता है, मुझको कोई अब 
ये जज़्बों का कैसा............................