काव्यांजलि
Friday, January 12, 2024
जीवन-३
Friday, March 31, 2023
जीवन-२
नहीं समझ आता है मुझको
क्या है जीवन, क्यूँ है जीवन
अब तक जो मैं करता आया
रहा नियंत्रण उसपे मेरा
या सब पहले से ही तय था
किधर अँधेरा, किधर सवेरा
कैसे उजाले आ जाते हैं
अन्धकार फिर छा जाता है
नहीं समझ.......................
किस जानिब से ख़ुशियाँ आती
किधर से चलकर दुःख आता है
क्यूँ ये बहारें आ जाती हैं
क्यूँ फिर पतझर छा जाता है
जब-जब लगता सुलझ रहा है
तब-तब और है उलझा जीवन
नहीं समझ...........................
कभी-कभी लगता है ये भी
जिसने जो बोया वो पाया
अगले क्षण पर नज़र पड़ी तो
सड़क पे रोता बच्चा पाया
जब लगता अब दीख रहा है
उसी समय धुंधलाया दर्पण
नहीं समझ.......................
बहुत देर तक बैठे सोचा
किस यात्रा पर निकले हैं हम
कहाँ है जाना, किधर से जाना
क्या है प्रयोजन निकले हैं हम
लगातार जब चलते-चलते
एक दिन सब कुछ रुक जाना है
नहीं समझ...........................
Tuesday, May 18, 2021
अमावस
Thursday, October 29, 2020
कब तक दिया जलाए रक्खूँ
कब तक दिया जलाए रक्खूँ
डीमो भी कुछ समझ न आई
आँखें मूंदे कब तक लेकिन
मन में आस लगाए रक्खूँ
कब तक........................
रोज़गार का वही हाल है
जीडीपी लेटा निढाल है
अच्छे दिन के सपने को मैं
कब तक यूँही जगाए रक्खूँ
कब तक........................
दंगे अब तो आम बात हैं
जबरन होते बिल भी पास हैं
अपने मन को कब तक लेकिन
*मृगजल में उलझाए रक्खूँ
कब तक........................
सभी *सूचकों में हम फिसले
कोरोना में आगे निकले
कोरी कल्पित दुनिया को मैं
कब तक यूँही सजाए रक्खूँ
कब तक........................
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*मृगजल = मृगतृष्णा, भ्रम
*सूचक = Index
Thursday, September 3, 2020
सपनों से सुन्दर अपना दर्पण
सूरज के ऊपर किसने ये, काली चादर डाली
अभिलाषा थी देखूँगा मैं, प्रात-काल की लाली
सूर्य-किरण से आलोकित फिर, कब जन-जीवन होगा
सोचा था सपनों से सुन्दर.....................
अम्बर के सज्जा आभूषण, किसने हाय उतारे
सूने नभ को कब तक देखूँ, बिन चंदा बिन तारे
*चंद्र-तारिकाओं से जगमग, कब गगनांगन होगा
सोचा था सपनों से सुन्दर.....................
उपवन के अंतस में जाने, किसने आग लगाई
मुरझाई वल्लरियाँ ऐसी, कभी कुसुम ना आई
पुष्प-सुमन से सज्जित शोभित, फिर कब उपवन होगा
सोचा था सपनों से सुन्दर.....................
Tuesday, September 1, 2020
ये क्या हो रहा है
ये क्यूँ हो रहा है
समय बिंदु पर एक
दिवस से खड़ा है
नहीं ऐसा देखा
था पहले कभी भी,
न फ़ितरत ही इसकी
यूँ लगती थी ऐसी,
कि टिक कर रहेगा
ये एक अंक पर ही,
ये *बेमिस्ल मंज़र
मगर दिख रहा है
समय बिंदु पर एक.......
ये ठहरा हुआ है
या भ्रम हो रहा है,
अगर यह थमा है
तो क्यूँकर थमा है,
ये फिर कब चलेगा
या यूँही रहेगा,
ये किसको ख़बर है
ये किसको पता है
समय बिंदु पर एक.......
या मैं रुक गया हूँ
सफ़र में यकायक,
तो यूँ लग रहा है
समय रुक गया है,
नहीं जानता हूँ
नहीं जान सकता
ये जैसी है उलझन
ये जो मसअला है
समय बिंदु पर एक.......
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*बेमिस्ल =अद्वितीय, अनोखा , जो पहले नहीं हुआ हो
Sunday, April 5, 2020
जीवन
धीरे-धीरे, रहते-रहते
एक आदत सी पड़ जाती है ।
हाँ, आदत तो पड़ जाती है
पर आदत पड़ने के क्रम में,
समझौते करते रहते हैं
पीड़ा भी सहते रहते हैं
क्रमशः एक दिन वो आता है
जब हम ख़ुद को खो देते हैं
हम जब ख़ुद को खो देते हैं
तब जाकर पड़ती है आदत
वैसे जीवन में ढलने की
वैसी राहों पे चलने की
जिसपे हमने पहले ख़ुद को
ना देखा है, ना पाया है
ना देखा है, ना पाया है
पर ये कैसा निर्मम जीवन
जिसने हमको सब दिखलाया
जिसमें हमने सोचा क्या था
और जिसमें हमने क्या पाया
हाँ, पर आदत पड़ जाती है
चाहे जैसा......................