Friday, September 30, 2011

नाला-ए-दिल*


जिक्र-ए-खयालात का मौका तो दिया होता
यूँ भी क्या था जाना इत्तला* तो किया होता 

 हम भी समंदर की वो गहराई माप लेते 
आँखों में अपने खोने का मौका जो दिया होता 

हम जीस्त* काट लेते उस ख़याल के सहारे 
मिलने का कभी तुमने वादा तो किया होता 

बदनाम हम न होते,कुचों* में नुक्कड़ों पर 
गर बज़्म* में तुमने हमें रुसवा* न किया होता 

दीवान दर्द-ओ-ग़म का मुक़म्मल* न होने पाता
गर कर गिरफ़्त इश्क में धोखा न दिया होता  

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नाला-ए-दिल - ह्रदय से निकलने वाला आर्तनाद  
इत्तला - सूचना
जीस्त - ज़िन्दगी 
कुचों -  गलिओं 
बज़्म - महफ़िल 
रुसवा - अपमानित 
मुक़म्मल - पूरा 

Tuesday, September 27, 2011

गुज़रा ज़माना

 वो दिन थे जब रोज़ होती थी मुलाकातें
अब नज़रों का मिलना भी इत्तफ़ाक लगता है 

इक वक़्त था जब शफ़क* से मोहब्बत थी मुझको
अब सूरज का उगना भी मज़ाक लगता है  

किसी ज़माने में खुशियों की चाहत थी मुझको
अब मसर्रत* से खूबसूरत अज़ाब* लगता है 

कभी तसव्वुर* से भी जिसके सुकून मिलता था 
अब ख्याल-ए-वस्ल* भी उदास लगता है 

जंग-ए-मोहब्बत में गर नाकाम हो गए
तब ज़िन्दगी बस दर्द का हिसाब लगता है 

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शफ़क - सवेरे या शाम की लालिमा जी क्षितिज पे होती है 
मसर्रत - ख़ुशी,आनंद  
अज़ाब - दुःख,कष्ट  
तसव्वुर -  ख्याल 
ख्याल-ए-वस्ल - मिलने का विचार 



   

Saturday, September 10, 2011

फिर क्यूँ गाऊं मन बहलाऊं

न मैं आया न तुम आये, ये वर्तमान फिर बीत गया 
कुछ टूट गए कुछ तोड़े गए, ये पुष्प्वृक्ष फिर रीत* गया 

न मैंने कहा न तुमने सुना, ये नीरवता* फिर जीत गया
न स्वर ही रहा न राग बचा, फिर व्यर्थ ही ये उद्गीत* गया

जिसने भी दिया बस छल ही दिया, न मुख कोई निर्लिप्त* गया
मैं भी पा लेता प्रेम मगर, ये भी वांछन* अतृप्त गया 

जो स्वप्न बुने वो टूट गए, न शौक कोई परितृप्त* गया
जिसको चाहा वो छूट गए, न दीप कोई संदीप्त* गया

न आस कोई परिहास* कोई, अब निज भरोस भी टूट गया
फिर क्यूँ गाऊं मन बहलाऊं, जब साज ह्रदय का छूट गया

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रीत - खाली होना 
नीरवता - निशब्दता 
उद्गीत - उचें स्वर में गया हुआ गाना
निर्लिप्त - बिना लेप चढ़ाया हुआ  
वांछन - इच्छा 
परितृप्त - अच्छी तरह संतुष्ट 
संदीप्त - जला हुआ 
परिहास - हास्य,विनोद