Friday, December 31, 2010

आज मनुज की देख दुर्दशा

आज मनुज की देख दुर्दशा
अंतर्मन सहसा बोल पड़ा है
                   मन में जमे हुए भय पर
                   एक बार पुनः हिलकोर पड़ा है

क्यूँ मानव, मानव कहलाता
जो उसके संग विवेक न होता
क्यूँ सर्वोत्तम माना जाता
जो संग नीति उपदेश न होता
                   किन्तु इसी अवलंबन* को
                   वह आज हटाना चाह रहा है

क्यूँ इतने रिश्ते बन जाते
जो संग प्रेम संगीत न होता
क्यूँ मानव खुद पर इठलाते
जो ज्ञान दीप संदीप्त* न होता
                    लेकिन इस प्रकृति-प्रबंधन* को
                    वह आज मिटाना चाह रहा है

क्यूँ प्रत्येक निशा उत्तर*
दिनकर आलोक लिए आता
क्यूँ सुख-दुःख का सम्मिश्रण
जीवन संतुलित किये जाता
                     पर आज उसी दैविक रहस्य को
                     वह झुठलाना चाह रहा है

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 अवलंबन -- आधार
 संदीप्त -- प्रज्ज्वलित
 प्रबंधन -- व्यवस्था
 निशा उत्तर -- रात के बाद

Monday, December 13, 2010

आशंकित मन

कोई बेगाना शहर,
एक अनजान सड़क,
और एक लड़का,जो खड़ा है तन्हा
कुछ टूटा,कुछ अलग-थलग
होकर अपनों से दूर,हो हालातों से मजबूर
किसी वह दूर गाँव से आया है...

और यहाँ जब देखा तो,
है लोगों की भीड़ लगी,
दुर्घटना भी है कदम कदम,
इक असहनीय कोलाहल है जो कानों को है बेध रहा,
उसपर से लोगों का जीवन जिसने बदली है परिभाषा

अब है वह कुछ घबराया सा,
कुछ डरा हुआ सा,सहमा सा,
आश्चर्यचकित,
और न जाने कितने भावों को
लिए समेटे खड़ा है वह तन्हा लड़का
मानो जैसे इक मेले में बिछड़ा हो कोई छोटा बच्चा

गो*, है मालूम उसे कैसे
इस भीड़ में बचकर चलना है,
और इस कोलाहल में कैसे
हर कदम फूंककर रखना है,
पर फिर भी यह आशंका है,
जीवन के नव परिभाषा में
और कुछ बनने की आशा में,
अस्तित्व लड़ाई में न कहीं
वह खो बैठे नैसर्गिकता*

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गो -- यद्यपि
नैसर्गिक --  स्वाभाविक

Sunday, November 28, 2010

कुछ लफ्ज़

1. कम से कम अलविदा तो मयस्सर* होता जाते हुए,
    मेरे किस्मत को शायद वो भी नागवार* गुजरा

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 मयस्सर -- प्राप्त
 नागवार -- अप्रिय

2. गुस्से में आकर भी वो सिर्फ दुआएं देती है,
    भेट ये कोई और नहीं बस माएं देती है  

आहट

रात वीरानी थी और घर भी था अकेला
किसकी सदा* ने छुपके मेरे दिल को था छेड़ा

आह हम भरते रहे,पलकें भी नम होती रहीं
किसका था जाने रात भर यादों का वह मेला

पल वहीँ ठहरा रहा था, धड़कने थी मुंजमिद*
किसका था जाने देन गमगीं* अजनबी बेला

आशुफ़्तगी* सा मन में था और बदन में ज़लज़ला*
किसका था जाने रूह जिसने मुझको टटोला

संकेत कोई था या यह भ्रम था बता दे ऐ खुदा
पहले भी घर था तन्हा और अब भी है अकेला

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सदा -- आवाज़
मुंजमिद -- स्थिर, रुका हुआ
गमगीं -- दुखी
आशुफ़्तगी -- घबराहट
ज़लज़ला -- कम्पन,  भूकंप

तन्हाई के आलम में कभी-कभी

तन्हाई के आलम में कभी-कभी,
तन्हाई के मसान* शून्यता से एक नासमझ प्रश्न पूछता हूँ,
कि क्या मेरे जीवन में प्रकाश का कोई योग है?
उत्तर ना पाकर आह्लादित* हो उठता हूँ,
ऐसे,
मानो यह निरुत्तरता हाँ छुपाये बैठा हो,
शायद,इसलिए क्यूँ कि मेरे जीवन में
ख़ुशी का अन्य कोई श्रोत नहीं

यूं तो मेरी ज़िन्दगी पथराई हुई,
बिन बुझी चराग कि रौशनी के समान है
जिसे ना तो जीवन के आनंद का एहसास है
ना ही मृत्यु के शुकून का
बस एहसास है तो आच्छादित* तन्हाई के सघनता का
जिसे प्रतिस्थापित* करने वाला भी है तो बस
तन्हाई...

अब मेरी दिनचर्या है,
खामोशी की सदाओं को सुनना
महसूस करना
और उसी से खेलते हुए तन्हाई के आगोश में खो जाना

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मसान -- श्मसान , मरघट
आह्लादित -- अत्यधिक प्रसन्न
आच्छादित -- फैला हुआ
प्रतिस्थापित --  स्थान लेना

आत्म-प्रबोधन

ना जाने हर मोड़ पे क्यूँ खुद को मैंने पीछे पाया,
या मैंने ही शायद अपनी क्षमता से कम जोड़ लगाया

ना जाने किस्मत में किसने बीज निराशा रोप दिया,
या मैंने की शायद जीवन भाग्य के हाथों सौंप दिया

ना जाने मेरे जीवन से खुशियों ने क्यूँ गमन किया,
या मैंने ही शायद अपनी खुशियों का है दमन* किया

ना जाने क्यूँ तम* ने ही हर बार ज्योति पर चढ़ाई की,
या मैंने ही शायद अंधेरों की खुलकर बड़ाई की

ना जाने क्यूँ मंजिल ने यह आँख-मिचोली खेल किया,
या मैंने ही शायद मंजिल के चुनाव में भूल किया

अब एक प्रश्न ईश्वर से मैं करने की इच्छा रखता हूँ,
थी यह उनकी ही इच्छा या सच मे मैंने भूल किया

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 दमन -- दबाना
 तम -- अँधेरा

साक्षात्कार

मुझे अपनी कवितायेँ प्रविष्ट करने से पूर्व भावी पाठकों से साक्षात्कार करने की इच्छा हुई.......इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपने कुछ विचारों को प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो कलम की नींव से उतरकर कविता के रूप में स्थिर हैं......इसका आरम्भ विचारपूर्ण ढंग से नहीं हुआ अपितु विचारों के सैलाब ने इसे अभिव्यक्त करने को बाध्य कर दिया......

कविता को सबसे परिस्कृत साहित्यिक विधा माना गया है....अतः इसमें प्रवेश करने पर फिसलन का डर रहता ही है क्यूंकि ऊंचाई जितनी हो गिरने का भय और प्रभाव उसी अनुपात में होता है.....
                                 "की अगले ही कदम पे खाइयाँ हैं,
                 बहुत अभिशप्त ये ऊंचाईयां हैं"...(शिव ॐ अम्बर)       

अतः आपसे यह अनुरोध है की आप लोग अपना बहुमूल्य सुझाव तथा टिप्पणियों से मार्गदर्शन करते रहे.....